वांछित मन्त्र चुनें

प्र मात्रा॑भी रिरिचे॒ रोच॑मानः॒ प्र दे॒वेभि॑र्वि॒श्वतो॒ अप्र॑तीतः। प्र म॒ज्मना॑ दि॒व इन्द्रः॑ पृथि॒व्याः प्रोरोर्म॒हो अ॒न्तरि॑क्षादृजी॒षी॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra mātrābhī ririce rocamānaḥ pra devebhir viśvato apratītaḥ | pra majmanā diva indraḥ pṛthivyāḥ proror maho antarikṣād ṛjīṣī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। मात्रा॑भिः। रि॒रि॒चे॒। रोच॑मानः। प्र। दे॒वेभिः॑। वि॒श्वतः। अप्र॑तिऽइतः। प्र। म॒ज्मना॑। दि॒वः। इन्द्रः॑। पृ॒थि॒व्याः। प्र। उ॒रोः। म॒हः। अ॒न्तरि॑क्षात्। ऋ॒जी॒षी॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:46» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:4» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब बिजुली के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (रोचमानः) प्रीति करता हुआ (विश्वतः) सर्वत्र (अप्रतीतः) प्रसिद्धि को नहीं प्राप्त (ऋजीषी) सीधे स्वभाववाला (इन्द्रः) और पराक्रम से युक्त सूर्य्य के सदृश तेजस्वी बिजुलीरूप अग्नि (मात्राभिः) शब्द आदि वा सूक्ष्म व्यवहारों के अवयवों से (प्र, रिरिचे) अधिक होता है और (देवेभिः) विद्वानों के साथ (प्र) वृद्धि को प्राप्त होता है (मज्मना) बल से (दिवः) प्रकाश से (पृथिव्याः) भूमि (उरोः) अनेक प्रकार गुणों के समूह से युक्त (महः) बड़े (अन्तरिक्षात्) आकाश से (प्र) अधिक होता है, वैसे आचरण करते हुए आप लोग प्रतिष्ठा को (प्र) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विकार को नहीं प्राप्त हुई बिजुली गन्धक आदिकों में वर्त्तमान हुई भी कुछ हानि नहीं करती, वैसे ही सब लोगों के साथ मित्रता करके विरोध का त्याग करो ॥३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्युद्विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा रोचमानो विश्वतोऽप्रतीत ऋजीषी इन्द्रो विद्युद्रूपोऽग्निर्मात्राभिः प्र रिरिचे देवेभिः सह प्र रिरिचे मज्मना दिवः पृथिव्या उरोर्महोऽन्तरिक्षात्प्ररिरिचे तथाऽऽचरन्तो यूयं प्रतिष्ठां प्रलभध्वम्॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (मात्राभिः) शब्दादिभिः सूक्ष्मैर्व्यवहाराऽवयवैर्वा (रिरिचे) अतिरिच्यते (रोचमानः) रुचिं कुर्वन् (प्र) (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (विश्वतः) सर्वतः (अप्रतीतः) प्रसिद्धिमप्राप्तः (प्र) (मज्मना) बलेन (दिवः) प्रकाशात् (इन्द्रः) पराक्रमवान् सूर्य्य इव तेजस्वी (पृथिव्याः) भूमेः (प्र) (उरोः) बहुविधगुणयुक्तात् (महः) महतः (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (ऋजीषी) सरलस्वभावः ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथाऽविकृता विद्युद्गन्धकादिष्वपि स्थिता न विरुणद्धि तथैव सर्वैः सह मैत्रीं कृत्वा विरोधं विजहत ॥३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ-या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी विकृत (रूपांतरित) झालेली विद्युत गंधक इत्यादींमध्ये राहून हानी करीत नाही. तसेच सर्व लोकांबरोबर मैत्री करून विरोधाचा त्याग करावा. ॥ ३ ॥